वर्ष 2018 से ही पूरे विश्व के कई विशेषज्ञ और पर्यावरणविद एक बड़े खतरे की ओर इशारा करते आ रहे हैं। वो खतरा है – ‘चॉकोपोकेलिप्स’, यानी आगामी समय में चॉकलेट की भारी कमी!
एक ओर तो ग्लोबल मार्केट में चॉकलेट की डिमांड जोरदार गति से बढ़ती जा रही है। रिपोर्ट्स की बात मानें तो वर्ष 2025 तक ये मार्केट लगभग 14 लाख करोड़ रुपये से भी अधिक हो सकता है। interessing बात यह है कि दुनिया में बनाई जाने वाली आधी से अधिक चॉकलेट यूरोप और नॉर्थ अमेरिका में ही पैदा हो जाती है।

भारत में भी बढ़ी डिमांड
भारत जैसे देशों में भी चॉकलेट की मांग तेजी से बढ़ रही है। 2011 से 2016 के बीच भारत में चॉकलेट की खपत में करीब 50% की जबरदस्त बढ़ोतरी देखी गई। इसके पीछे खास वजह है – बदलती लाइफस्टाइल और युवाओं के बीच बढ़ती कॉफी कल्चर’।
लेकिन सप्लाई में भारी संकट
अब यदि डिमांड यही तेजी से बढ़ेगी तो सप्लाई पर प्रभाव तो पड़ेगा ही। वास्तविक मुसीबत तो कोको की खेती में आ रही रोगों और प्राकृतिक आपदाओं के कारण हो रही है। अब किसान कोको की जगह रबर या पाम ऑयल जैसी अधिक लाभदायक फसलें लगाने लगे हैं।
वनों की कटाई और बाल मजदूरी की भी समस्या
WWF की रिपोर्ट के अनुसार, कोको की फसल के कारण पश्चिम अफ्रीका, विशेषकर घाना और कोटे डी आइवर में हैरान-जनक वनों की कटाई हो रही है। इतना ही नहीं, यहाँ बाल मजदूरी की समस्या भी तेजी से बढ़ी है।
अब वैज्ञानिकों की नई खोज – लैब में बनी चॉकलेट
देखा जाए कि कुछ कंपनियां और वैज्ञानिक अपनी नई तकनीकें लेकर इस गंभीर स्थिति का समान्य तरीका अपना रहे हैं। कुछ ब्रांड्स की तरह मार्स और मिल्का ने सस्टेनेबल खेती के दिशा में कदम बढ़ाए हैं। कुछ लोग इससे भी क्रांतिकारी तरीका अपना रहे हैं – लैब में चॉकलेट बनाना
कैसे बनती है लैब में चॉकलेट?
स्विट्ज़रलैंड की ज्यूरिख यूनिवर्सिटी ऑफ एप्लाइड साइंसेज (ZHAW) के वैज्ञानिकों ने अपने लैब में चॉकलेट बनाने की एक ऐसी विशेष तकनीक ढूंढी है। शोधकर्ता रेजिन एबल के अनुसार, “हम लैब में वही प्रक्रिया दोहराते हैं, जो प्रकृति में होती है।”
इसके लिए सबसे पहले कोको फल को अच्छी तरह से साफ किया जाता है,फिर बीजों को निष्फल किया जाता है। इसके बाद बीजों को स्केलपेल से छोटे टुकड़ों में काटा जाता है,और 29 डिग्री तापमान में अंधेरे में तीन हफ्ते तक इनक्यूबेट किया जाता है।
उस प्रक्रिया के बाद बीजों के ऊपर क्रस्ट (छिल्के जैसे हिस्से) बन जाते हैं। फिर इन क्रस्ट्स को काटकर बड़े फ्लास्क में रखा जाता है और बायोरिएक्टर में अच्छे से हिलाया जाता है। यही बायोरिएक्टर एक तरह का विशाल टैंक होता है, जहां चॉकलेट का उत्पादन किया जाता है।
अभी कितना कारगर है ये तरीका?
बेहतर यह है कि इस तरह तैयार चॉकलेट को लंबे समय तक उगाया जा सकता है और यह पर्यावरण के लिए भी ज्यादा सुरक्षित मानी जा रही है। लेकिन अभी तक इस प्रक्रिया में कितनी ऊर्जा खपत होती है, इसका पूरा आकलन नहीं हुआ है।
चॉकलेट प्रेमियों के लिए यह खबर थोड़ी चिंता की हो सकती है, लेकिन साथ ही राहत की बात यह है कि वैज्ञानिक और कंपनियां इनोवेटिव तरीकों से इस संकट का समाधान ढूंढ़ने में जुटे हैं। हो सकता है कि आने वाले कुछ सालों में हम सबको एक नई तरह की लैब में बनी चॉकलेट टेस्ट करने का मौका मिले |