Manorma Shukla:खुद का पिंडदान कर नागा साधु बनी मनोरमा शुक्ला,राज राजेश्ववरी की मिली उपाधि

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मध्यप्रदेश के उज्जैन में रहने वाली मनोरमा शुक्ला अब संत मनोरमा भारती बन गई है। गृहस्थ जीवन को पूरी तरह से त्यागकर मनोरमा ने नागा साधु बनने का निर्णय किया और मौनी अमावस्या के दिन अपने ही हाथों से खुदका पिंडदार किया। जैसे ही ये खबर सोशल मीडिया पर आई हर ओर बस इनकी ही चर्चा होने लगी।

मनोरमा शुक्ला की कहानी
मनोरमा शुक्ला का जन्म उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गाँव में हुआ था। वह एक सामान्य महिला थीं, जिनका जीवन समाज के पारंपरिक ढांचे में बसा हुआ था। उनका नाम पहले किसी साध्वी के रूप में नहीं जाना जाता था, लेकिन उनके जीवन में एक ऐसा मोड़ आया, जिसने उन्हें एक नागा साधु बनने की प्रेरणा दी।
मनोरमा शुक्ला ने शुरू में एक सामान्य गृहिणी के रूप में जीवन यापन किया। उनका जीवन पारिवारिक जिम्मेदारियों, बच्चों और घर-परिवार की देखभाल में बसा हुआ था। लेकिन एक दिन, उन्होंने अपने अंदर एक गहरी आध्यात्मिक जागृति महसूस की। उन्हें एहसास हुआ कि उनका जीवन केवल भौतिक सुखों तक सीमित नहीं रह सकता और उन्होंने साधना और तपस्या की ओर रुख किया। उनका मन आध्यात्मिकता की ओर आकर्षित होने लगा, और उन्होंने यह महसूस किया कि उन्हें एक बड़ा उद्देश्य निभाना है।
महाकुंभ मेला, जो हर 12 साल में लगता है, एक ऐसा अवसर था जिसे वह अपनी जीवन यात्रा का हिस्सा बनाना चाहती थीं। इस मेले में लाखों लोग आते हैं, लेकिन खास बात यह थी कि यहाँ नागा साधु मुख्य रूप से पुरुष होते हैं। महिलाएं इस भूमिका में कम ही दिखती थीं। लेकिन मनोरमा ने इस चुनौती को स्वीकार किया।

नागा साधु बनने की यात्रा
मनोरमा ने अपने परिवार को बताया कि वह महाकुंभ में जाने और साधु जीवन अपनाने की योजना बना रही हैं। शुरुआत में उनके परिवार और समाज के लोग इसे नकारात्मक दृष्टि से देखते थे, लेकिन उनका मन पक्का था। उन्होंने अपने गुरु से दीक्षा ली और कठोर तपस्या और साधना में अपना समय बिताया।
महाकुंभ में अपने पहले प्रवेश के समय, वह पूरी निष्ठा और श्रद्धा के साथ नागा साधु के रूप में दिखीं। उन्होंने अपने शरीर को आरण्यक रूप में ढका और अपने जीवन की साधना को महाकुंभ की पवित्र धारा में समर्पित कर दिया। उनका यह कदम समाज में महिलाओं के अधिकार और स्वतंत्रता के प्रति एक गहरी छाप छोड़ गया।
मनोरमा शुक्ला की यह कहानी महाकुंभ के इतिहास में एक अद्वितीय घटना बन गई। उन्होंने साबित कर दिया कि आत्मा और श्रद्धा के रास्ते में किसी भी प्रकार की पारंपरिक सीमाएँ नहीं हो सकतीं। उनकी यात्रा ने न केवल महिला सशक्तिकरण को एक नई दिशा दी, बल्कि यह यह भी सिद्ध कर दिया कि अगर किसी व्यक्ति का उद्देश्य पवित्र और सत्य है, तो वह किसी भी कठिनाई से पार पा सकता है।
यह कहानी आज भी महिलाओं को प्रेरित करती है कि वे अपने सपनों के पीछे बिना किसी डर के चलें और अपनी आध्यात्मिक यात्रा में किसी भी प्रकार की सामाजिक बाधाओं को चुनौती दें।

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