आज के बदलते जीवनशैली में बच्चों का स्क्रीन टाइम बढ़ता जा रहा है। स्कूल से घर लौटने के बाद अधिकांश बच्चे मोबाइल, टैबलेट या टीवी में व्यस्त हो जाते हैं और बाहर खेलने नहीं जाते। विशेषज्ञों का मानना है कि यह ट्रेंड बच्चों के शारीरिक और मानसिक विकास – दोनों के लिए खतरनाक है।
अंतरराष्ट्रीय शोध की चौंकाने वाली रिपोर्ट
हाल ही में यूरोप और एशिया के देशों में 7 से 12 साल के बच्चों पर हुए एक अंतरराष्ट्रीय अध्ययन में सामने आया कि 34% बच्चे स्कूल के बाद कभी बाहर नहीं खेलते, जबकि 20% बच्चे सिर्फ हफ्ते में एक बार बाहर खेलने जाते हैं। दक्षिण एशिया में यह स्थिति और भी चिंताजनक है। विशेषज्ञों ने चेताया कि अगर बच्चों की यह “खेल से दूरी” की आदत जारी रही, तो इसका असर उनकी सेहत पर दीर्घकालिक रूप से पड़ेगा।
शारीरिक विकास पर सीधा असर
बाहर खेलने से बच्चों की मांसपेशियां, हड्डियां और इम्यून सिस्टम मजबूत होता है। दौड़ने-भागने से कैलोरी बर्न होती है और मोटापे की संभावना कम होती है। लेकिन अब बच्चों की ऊर्जा का स्तर गिर रहा है। मोटापा तेजी से बढ़ रहा है और रोज़ाना के एक्टिव मूवमेंट्स में भारी कमी आ रही है। विशेषज्ञ इसे “साइलेंट हेल्थ क्राइसिस” बता रहे हैं।
मानसिक स्वास्थ्य को भी नुकसान
खेलना सिर्फ शारीरिक सक्रियता नहीं, बल्कि सामाजिक और मानसिक विकास का जरिया भी है। दोस्तों के साथ खेलने से टीमवर्क, नेतृत्व क्षमता, भावनात्मक संतुलन और तनाव से मुकाबला करने की ताकत बढ़ती है। अब बच्चे ज्यादातर स्क्रीन में उलझे रहते हैं जिससे एकांतप्रियता, तनाव और चिड़चिड़ापन जैसी समस्याएं पनपने लगी हैं। कुछ मामलों में डिप्रेशन तक देखने को मिला है।
शहरों में खेलने की जगह बन गई चुनौती
विशेषज्ञों के अनुसार, शहरीकरण और सुरक्षित खेल स्थलों की कमी भी बड़ी वजह है। ट्रैफिक का डर, अनजान लोगों से खतरा और मैदानों की कमी के कारण पेरेंट्स बच्चों को बाहर भेजने से हिचकते हैं। नतीजा यह है कि बच्चे घर में कैद होकर मोबाइल और टीवी में समय बिताते हैं।
एक बाल स्वास्थ्य विशेषज्ञ का कहना है, “बच्चों के लिए रोज़ाना कम से कम 1 घंटे का फिजिकल प्ले बहुत जरूरी है। केवल स्कूल का पीटी पीरियड काफी नहीं है। अगर बच्चे बाहर नहीं जाएंगे, तो उनका शारीरिक, मानसिक और सामाजिक विकास प्रभावित होगा।”
क्या हो सकते हैं समाधान?
पेरेंट्स बच्चों को एक्टिव खेलने के लिए प्रेरित करें।
सोसाइटी या कॉलोनी में सुरक्षित खेलने की व्यवस्था करें।
स्क्रीन टाइम को सीमित करें।
बच्चों के लिए आउटडोर एक्टिविटीज़ प्लान करें – जैसे संडे स्पोर्ट्स, साइक्लिंग, पार्क विजिट आदि।
स्कूल्स भी बच्चों के प्ले टाइम को महत्व दें।
खेल से ही खिलता है बचपन
बचपन खेलने-कूदने का समय होता है। अगर बच्चे इसी उम्र में घरों में कैद रहेंगे, तो उनका व्यक्तित्व अधूरा रह जाएगा। समय है कि हम चेतें और बच्चों को खेलने के लिए फिर से खुला आसमान, हरियाली और हंसी-खुशी वाला माहौल दें।