जब भी महाराष्ट्र की परंपराओं की बात होती है, तो पैठणी साड़ी का जिक्र खुद-ब-खुद हो जाता है। ये सिर्फ एक परिधान नहीं, बल्कि इतिहास, संस्कृति और भावनाओं की बुनावट है। कहते हैं, एक मराठी दुल्हन की शादी तब तक पूरी नहीं मानी जाती जब तक वो पैठणी साड़ी पहनकर सात फेरे ना ले ले।

करीब 2000 साल पुरानी इस साड़ी की जड़ें औरंगाबाद के पैठण शहर से जुड़ी हैं। यहीं से इसका नाम पड़ा – ‘पैठणी’। रेशमी धागों और असली सोने-चांदी की ज़री से हाथों से बुनी जाने वाली ये साड़ी हर धागे में इतिहास समेटे हुए है। एक दौर था जब हैदराबाद के निज़ाम इसे अपने दरबार की शान बनाते थे। वहीं पेशवाओं ने इस कला को महाराष्ट्र के येवला तक पहुँचाया और तब से ये साड़ी मराठवाड़ा की पहचान बन गई।
पैठणी की खासियत सिर्फ उसके रंग-बिरंगे धागों में ही नहीं, बल्कि उसकी डिज़ाइनों में भी छुपी है। मोर की नाचती छवि, कमल के खिलते फूल, बेल-बूटे और बुद्धिस्ट कला से प्रेरित पैटर्न – हर साड़ी जैसे एक कहानी कहती है। यही वजह है कि फिल्मों से लेकर फैशन शोज तक, हर मंच पर पैठणी की चमक अलग नजर आती है। ‘बाजीराव मस्तानी’ जैसी फिल्मों में दीपिका पादुकोण ने जब पैठणी पहनकर कदम बढ़ाए, तो हर लड़की का सपना बन गई ये साड़ी।

आज भी शादी से लेकर हर बड़े त्यौहार तक, मराठी महिलाएं पैठणी को गर्व से पहनती हैं। सास से बहू तक, यह साड़ी एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक विरासत की तरह सहेजी जाती है। और जब नई नवेली दुल्हन लाल रंग की पैठणी पहनकर मुस्कराती है… तो मानो पूरा आंगन सौभाग्य से भर उठता है।