स्त्री और युद्ध

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मैं एक स्त्री,

जिसे सृष्टि के रचयता ने,

बना दिया कोमल।

मैं एक स्त्री,

माँ के आंखों से,

छलके आँसू की तरह,

मैं एक स्त्री,

पिता की कोमल झिड़की हूँ।

मैं स्त्री हूँ,

इसके बलिदान ही दिए मैंने,

और पुरुषों को,

मानती रही अपना शत्रु।

पर मैं एक स्त्री,

जिसके, दुनिया में,

सबसे अधिक करुण,

सैनिकों के प्रेम ने,

त्रिया-अहं को खत्म कर दिया।

मैं एक स्त्री,

जो बलिदान ही देती आयी,

बन जाना चाहती हूँ बलि,

राष्ट्र की विधवा बन कर।

वैधव्य की वीभत्सता को,

युद्ध की क्रूरता भी,

नहीँ हरा सकती।

युद्ध में साथ मरने को सैनिक हैं,

साथ लड़ने को सैनिक,

पर विधवा के जीवन का प्रतीक,

लाल लहू और सफेद साड़ी है।

लहू जो उसके,

प्रेमी, पति, आदि का बहा,

और जिसके लाल रंग ने,

एक जीवन को श्वेत कर दिया।

श्वेत पताकाएं,

जो शांति का प्रतीक,

हो जानी चाहिए थीं,

युद्ध के पूर्व,

वो विधवा की शरीर पर,

श्वेत साड़ी बन कर लौटीं हैं,

कानों में चीखती शांति,

बन कर लौटीं हैं।

किसी बधिर के जीवन का सार है,

वो शांति की श्वेत पताका।

और सफेद साड़ी में लिपटी,

विधवा का, भयावह दर्पण है,

उस जवान का रक्तरंजित शरीर।

– वर्तिका तिवारी

2 –    अल्हणपन

मेरे पाँव में दबे हैं इतिहास,

मेरे बालिका से स्त्री बनने के।

इनमें दफ़न हैं,

इनके नीचे कुचले गए,

मेरे अनगिनत सपने।

सपने जिन्हें समाज ने,

वर्षों से सम्मान नहीँ दिया।

मेरे बचपन के बेबाक कदम,

अल्हड़पन में नाचना,

छोटी-छोटी पायलों की खनक,

बेताल थिरकते पैर,

मनचलों को मारने,

के लिए उठे पंजे,

सब दफ़न है इनमें।

और इन्ही से बनाना है,

मुझे सुखद भविष्य।

– वर्तिका तिवारी

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